मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

क्या न्यायालय के निर्णयों में भी ‘‘न्याय’’ के साथ ‘‘संतुलन’’ का ‘‘भाव’’ दिखता है?

वास्तविक ‘‘न्याय’’ क्या है?

संविधान की तीन स्तंभों में सबसे महत्वपूर्ण न्यायपालिका की ‘‘माननीय न्यायालय’’ का काम ‘‘सिर्फ और सिर्फ’’ ‘‘न्याय’’ देने का ही होता है। ‘‘न्याय’’ देते समय न्यायालय को सिर्फ न्याय देने पर ही ध्यान केन्द्रित करना होता है। न्यायालय के आस-पास विद्यमान ‘‘परिसर’’ से लेकर, बाहर क्या परिस्थितियां, घटनाक्रम चल रहा है, उससे प्रभावित हुए बिना सिर्फ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत रिकॉर्ड (केस डायरी) पर उपलब्ध तथ्यों की न्यायिक समीक्षा कर माननीय न्यायाधीश ‘‘न्यायिक निर्णय’’ देते हैैं। न्याय की यह आदर्श स्थिति हैं। न्यायालय का निर्णय किस पक्षकार के पक्ष में है, हार-जीत में है, और निर्णय का समाज या देश के अन्य तंत्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, उससे उन्मुक्त होकर ही, ड़रे बिना ही निष्पक्ष व निरपेक्ष होकर माननीय न्यायाधीश निर्णय देते है। यही वास्तविक न्याय है। यथा ‘‘न्याय न क्यारी ऊपजे, पंच न हाटे बिकायः’’। 

इंसाफ का तराजू?                                                                                           

‘‘न्याय’’ के संबंध में यह कहा जाता है कि न्यायालय में इंसाफ की देवी की मूर्ति लगी होती है, जिनकी दोनों आंखों पर काली पट्टी बंधी होती है और हाथ में तराजू होती है। ग्रीक पौराणिक कथा में न्याय देवता का जिक्र किया गया हैं। ये एक काल्पनिक पात्र हैं। ‘‘न्याय देवता का नाम थेमिस हैं। इनका वर्णन इस प्रकार किया गया हैं-हर परिस्थिति में भावना को दूर रखकर न्याय करने वाली ‘‘दोनों पक्षकारों को समान भाव से देखने वाली’’ किसी के भी रूप, पैसा, अधिकार, धर्म से प्रभावित न होने वाली। आँखों पर की पट्टी - सभी को एक ही भाव से देखने वाली का प्रतीक हैं। हाथ में रहा तराजू, ‘‘निष्पक्ष न्याय का प्रतीक’’ हैं। तराजू में कुछ भी तौल के देखे-वह ‘‘वजन के हिसाब से ही दूसरे को तौलता है, चाहे वो कुछ भी हो’’।

‘‘संतुलन का परसेप्शन’’

माननीय उच्चतम न्यायालय के पिछले कुछ न्यायिक निर्णयों से ऐसा आभास सा हो रहा है कि उन निर्णयों में कहीं न कहीं न्यायालय का ‘‘प्रयास’’ (स्वाभाविक अथवा अतिरिक्त?) ‘न्याय’ के साथ दोनों पक्षों के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास होता हुआ दिखता है। तथापि निर्णय ‘न्यायिक’ ही होते हैं। इस हेतु जरूरत पड़ने पर न्यायालय अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्राप्त असीमित विशेषाधिकार/विवेकाधिकार का भी सहारा लेती है। सामान्यतः न्यायालय के सामने दो ही पक्ष होते है, जो अपना-अपना पक्ष रखते हैं, जिनके बीच ही निर्णय का तराजू का कांटा धूमता है। तीसरा पक्ष वह होता है, जो न्यायिक निर्णय के परिणाम के आकलन, मूल्यांकन का पक्षपात पूर्ण हुए बिना निष्पक्ष होकर करता हैं। इससे न्यायालय को न तो कोई लेना-देना होता है और न ही इससे उसके ‘‘स्वास्थ्य’’ पर कोई प्रभाव पड़ता है। पिछले कुछ समय से कुछ न्यायिक निर्णयों से बनते उक्त परसेप्शन ‘‘संतुलन’’ बनाने को बल सा मिल रहा है।

संजय सिंह का जमानत आदेश!

इसी संदर्भ में अभी ताजा उदाहरण आप पार्टी के सांसद संजय सिंह के विरुद्ध प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई ‘‘पीएमएलए’’ कानून के अंतर्गत शराब घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड़िग में की गई कार्रवाई के तहत की गई गिरफ्तारी पर उच्चतम न्यायालय द्वारा संजय सिंह को दी गई जमानत के निर्णय है। चंूकि आरोपी को जमानत मिली, इसीलिए उसके साथ न्याय हुआ, आरोपी की यह सोच स्वभाविक ही है। कहते है ना कि ‘‘अघाए को ही मल्हार सूझता है’’।  दूसरी ओर अभियोजन पक्ष जिसने आरोपी के विरूद्ध गिरफ्तारी की कार्रवाई की बावजूद जमानत का विरोध ऑन रिकॉर्ड नहीं किया, तब भी यह कहा जा सकता है, अभियोजन पक्ष की भी जीत हुई है। क्योंकि उसने जमानत का विरोध नहीं किया, जो सामान्य रूप से अन्य प्रकरणों में ई.डी. अभी तक करता चला आ रहा है। प्रवर्तन निदेशालय द्वारा उक्त अधिनियम के अंतर्गत मोदी सरकार के कार्यकाल में अभी तक दर्ज 121 मामलों में (जिनके मात्र 6 सत्ता पक्ष के नेताओं के विरूद्ध ही) से अधिकतरों में आरोपी को जमानत ई.डी. के विरोध के कारण नहीं मिली है। भले ही प्रकरणों में चालान प्रस्तुत न हुए हो अथवा गवाही की कार्रवाई चालू न हुई हो। विपरीत इसके पूर्व की यूपीए सरकार के 10 वर्ष के कार्यकाल में मात्र 26 नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई की गई, जिनमें से 14 (54 प्रतिशतं) विपक्ष के थे। इस प्रकार सिक्के के दूसरे पहलू का एक अर्थ यह भी निकलता है कि कांग्रेस (स्वतंत्रता के बाद की) भाजपा की तुलना में ज्यादा भ्रष्ट पार्टी है। इसलिए केन्द्रीय एजंेसीसज् को सरकार होने के बावजूद उन्हे सत्ताधारी पार्टी के नेताओं के विरूद्ध कार्रवाई करनी पड़ी थी।  

ई.डी. द्वारा संजय सिंह का जमानत का विरोध नहीं!

सबसे महत्वपूर्ण गौर करने वाली बात यह है कि प्रस्तुत प्रकरण में न्यायालय ने संतुलन बनाने का प्रयास किया है, ऐसा इसलिए लगता है कि न्यायालय के समक्ष अभियुक्त ने पीएमएलए की धारा 45 के अंतर्गत यह कहकर जमानत की मांग की थी कि, प्रथम दृष्टया यह प्रावधान आरोपी पर लागू नहीं होता है, क्योंकि इसके समस्त आवश्यक तत्वों का पूर्णतः अभाव हैै। सुनवाई के समय न्यायालय इस बात से शायद संतुष्ट भी था। इसलिए माननीय न्यायालय ने ई.डी. से यह कहा कि आरोपी 6 महीनें से जेल में बंद है, उसके पास से कोई रूपये की जप्ती अभी तक नहीं हुई है। आपके पास आरोपी को निरोध में आगे रखने के लिए और कोई तथ्य, साक्ष्य हो, तो रिकार्ड पर लाईये। कृपया यह ध्यान में रखिये कि यदि हमने खामियां पाई तो धारा 45 के अंतर्गत हम यह रिकॉर्ड करेंगे कि अपराध नहीं किया है, जो आपके लिए नुकसानदेह होकर उसका असर ट्रायल की सुनवाई पर होगा। इस प्रकार एक तरह से उच्चतम न्यायालय ने एक विकल्प देकर ई.डी. को अप्रत्यक्ष रूप से मजबूर किया कि वह जमानत का विरोध न करे। अन्यथा उनके खिलाफ आदेश पारित कर जमानत दे दी जायेगी।

संजय सिंह की जमानत का निर्णय ‘‘मिसाल’’ नहीं।

अंततः ईडी के वकील ने बहुत ही समझदारी से काम लेते हुए संजय सिंह को जमानत देने का विरोध न करते हुए अपनी सहमति दे दी। इस प्रकार संजय सिंह को जमानत देने के साथ ही न्यायालय ने इस निर्णय को एक ‘‘उदाहरण’’ रूल ऑफ लॉ अथवा ‘‘मिसाल’’ अन्य मामलों के लिए नहीं माना जा सकता है, यह भी स्पष्ट कर दिया। इसे न्याय के साथ-साथ संतुलन बनाने की नीति के अलावा क्या कहा जा सकता है? ‘‘अपनी पीठ खुद को नहीं दिखती’’ इस बात को एक अच्छा कानूनविद् ही बेहतर अच्छे तरीके से ज्यादा बतला सकता है। जब न्यायालय इस तार्किक परिणति पर पहुंच चुका था कि संजय सिंह के विरूद्ध प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता है, तब उच्च न्यायालय को गुण-दोष के आधार पर ही आदेश पारित करना चाहिए था। इससे वह सबके लिए (ई.डी. सहित) यह एक मिसाल बनकर भविष्य में ई.डी. को इस तरह की आधारहीन कार्रवाई करने से हतोत्साहित करता। 

चंडीगढ़ मेयर का चुनाव!

इसी तरह का चंड़ीगढ मेयर के चुनाव के वोट का डाका सरे आम हुआ। मामला उच्चतम न्यायालय तक पहंुचा। उच्च न्यायालय के अंतरिम सहायता देने के इंकार के अंतरिम आदेश के विरूद्ध अपील दायर की गई थी। तब उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि उच्च न्यायालय के सामने प्रस्तुत रिकॉर्डिंग वीडियो से स्पष्ट रूप से धांधली होते हुए दिख रही थी, तब क्यों नहीं अंतरिम आदेश पारित किये गये? परंतु दुर्भाग्यवश उच्चतम न्यायालय ने भी स्वयं तुरंत उच्च न्यायालय के आदेश को स्थगित नहीं किया, बल्कि सरकार को नोटिस देते हुए 15 दिन बाद की सुनवाई निश्चित की गई। तत्पश्चात सिर्फ स्थगन आवेदन पर आदेश पारित करने की बजाए पूरे मामले को गुण-दोष के आधार पर न केवल चुनाव अवैध घोषित कर दिया, बल्कि हारे हुए उम्मीदवार को जीता हुआ भी घोषित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इससे न्याय के साथ-साथ यदि संतुलन बनाये रखने का परसेप्शन बना, ऐसा कहने वाले को गलत नहीं कहा जा सकता है। 

‘‘श्री राम जन्म भूमि निर्णय’’।

इसी प्रकार रामजन्म भूमि विवाद का निर्णय में भी दोनों पक्षों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने आदेश पारित किया। जो मुद्दे, विचाराधीन नहीं थे उन्हें भी सेटल किया गया। विवादित भूमि पर मुस्लिम पक्ष के दावे को अस्वीकार करते हुए पूरी तरह से ‘‘रामलला’’ का हक माना गया। बावजूद इसके सुन्नी वक्क बोर्ड को अयोध्या में ही किसी उचित जगह मस्जिद निर्माण हेतु भूमि देने तथा मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनाने का दिया गया आदेश भी एक प्रकार से ‘‘संतुलन के न्याय’’ का ही आदेश था।

अनुच्छेद 370 का मामला।

उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 370 को निरस्त करने वाले राष्ट्रपति के आदेशों को सद्भावना पूर्व होते हुए वैद्य माना गया। तथापि अनुच्छेद 367 में संशोधन करने वाले आदेशों को असवैधानिक मानने के बावजूद जम्मू-कश्मीर के पुर्नगठन की वैद्यता को निर्णित करने के बजाए सालिटर जनरल के आश्वासन के कथन को स्वीकार कर लिया, जो एक संतुलन बनाने की ओर बढ़ने का आदेश ही कहलायेगा। 

महाराष्ट्र की राजनीति का सुभाष देसाई बनाम प्रधान सचिव प्रकरण!

उच्चतम न्यायालय ने राज्यपाल के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को तथाकथित शिवसेना में विभाजन के बाद बहुमत साबित करने के निर्णय को अवैध घोषित करने के बावजूद उस अवैध निर्णय से उत्पन्न अवैध सरकार को भंग करने की इच्छा के संकेत देने के बावजूद भंग कर यथा स्थिति बहाल करने का न्यायिक आदेश न देकर, इसे संतुलन बनाने का प्रयास के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है? 


मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

कांग्रेस ‘‘मुक्त’’ भारत तो नहीं। कांग्रेस ‘‘युक्त’’ भाजपा अवश्य।

 भ्रष्टाचार ‘‘विमुक्त’’ कांग्रेस! क्या संभव है?

कांग्रेस ‘‘मुक्त’’ भारत का नारा 2013ः-

देश की जन मानस को अच्छी तरह से याद है, लोकप्रिय प्रधानमंत्री का वह बहुचर्चित प्रचारित नारा-ः ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’! वर्ष 2013 में नरेन्द्र मोदी जिन्हें वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव के लिये, भाजपा नेतृत्व ने चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया था, ने तब यह कहा था कि मेरा सपना कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण का पूरा होना चाहिए। वर्ष 2018 में उन्होंने इस आगे स्पष्ट करते हुए कहा कि कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से मतलब कांग्रेस को राजनीतिक रूप से समाप्त करने से नहीं है, बल्कि देश को कांग्रेस संस्कृति से मुक्त कराने के साथ ही स्वयं कांग्रेस को भी अपनी संस्कृति से मुक्त होने से है, जो देश हित में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी हैं। आखिरकार कांग्रेस की संस्कृति हैं क्या? जवाब यही मिलेगा! ‘‘भ्रष्टाचार के कंठ में गले तक डूबी हुई संस्कृति नहीं कृति’’। 

महात्मा गांधी का सपना ‘‘कांग्रेस को भंग’’ कर देना चाहिए

वर्ष 1948 में पंडित नेहरू के कार्यकाल के ‘‘जीप खरीद घोटाला’’ जिसमें केन्द्रीय मंत्री के. कृष्ण मेनन  को इस्तीफा तक देना पड़ा था, से लेकर 2013 तक यूपीए सरकार में कई कांडों, धोटालों की भरमार रही, जिसके कारण ही अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी हुआ। वर्ष 2019 में संसद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह कहा था कि ‘‘कांग्रेस मुक्त’’ का नारा मेरा नहीं बल्कि ‘‘महात्मा गांधी का एक सपना था’’ और उनके प्रति श्रद्धांजलि के बतौर यह कार्य ‘‘पूरा करना’’ ही करना है। आगे उन्होंने यह भी कहा कि अंबेडकर ने भी यह कहा था कि कांग्रेस में शामिल होना, आत्महत्या करने के समान है। परन्तु 10 साल के भाजपा शासन काल के बावजूद अभी तक यह संभव नहीं हो पाया है और न ही भविष्य में होने की संभावनाएं दूर-दूर तक दिखती प्रतीत होती हैं।

कांग्रेस ‘‘युक्त’’ भाजपा 2024ः-

भाजपा ने शायद इसीलिए वर्ष 2013 की अपनी कांग्रेस मुक्त भारत की नीति में परिवर्तन किया, और 2024 के आते-आते कांग्रेस मुक्त भारत की जगह ‘‘कांग्रेस युक्त भाजपा’’ की ओर तेजी से कदम बढ़ाने की कार्य योजना बनाई गई हैं, जो तेजी से सफलता के कदम भी चूम रहीं हैं। बगैर किसी तकल्लुफ के क्योंकि ‘‘तकल्लुफ में है तकलीफ सरासर’’। इसके लिए ‘‘बीच भंवर में तिनके का सहारा ढूंढ़ते’’ कांग्रेसियों को भाजपा में लाने के लिए न केवल (स्पेशल सेल) र्ज्वाइनिग कमेटी कई राज्यों से बनाई गई हैं, बल्कि 45वंे स्थापना दिवस के दिन मध्य प्रदेश में ही एक लाख कांग्रेसियों को भाजपा में लाने का लक्ष्य भी रखा गया था। दल-बदल विरोधी कानून होने के बावजूद ‘‘एडीआर’’ की एक रिर्पोट के अनुसार वर्ष 2014 से 2021 तक विधायक-सांसद स्तर के 426 नेताओं ने बीजेपी का दामन थामा है, जिनमें कांग्रेस के 10 पूर्व मुख्यमंत्री (】अभी तक) शामिल है। वैसे सोशल मीडिया में इस संबंध में इस कदम पर एक चुटकी अवश्य ली जा रही है कि इन ‘‘फूल छाप कांग्रेसियों’’ को भाजपा में लाने की आवश्यकता ही क्या है? जब पहले से ही 50-60 प्रतिशत ऐसे कांग्रेसी भाजपा के लिए कार्य कर रहे थे। क्योंकि पार्टी में लाने के बाद तो उनमें से कुछ एक को तो पदों पर नवाजना भी पड़ेगा और इस कारण से भाजपा के ‘‘हकदार’’ कार्यकर्ताओं का ‘वैद्य’ हक समाप्त होगा। जैसा कि वर्तमान में 7 राज्यों की भाजपा की कमान दल-बदलुओं के पास है।

कमल छाप साबुन के साथ भाजपा की वाशिंग मशीन-  

भाजपा ने अभी कांग्रेसियों को भाजपा में लाने की जो नीति बनाई है, उसकी सफलता और नैतिकता पर कोई प्रश्नचिन्ह न लगे, इसके लिए यह आवश्यक हो गया था कि पार्टी में आने वाले कांग्रेसी जो भ्रष्टाचार की जन्मदाता व पर्यायवाची कांग्रेस के होने से अधिकांशतः भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, को भ्रष्टाचार के ऊपरी आवरण से मुक्त कर दिया जाए, तब भाजपा को इन्हें लेने में कोई परेशानी नहीं होगी। इसीलिए ‘‘कमल छाप साबुन के साथ भाजपा की वाशिंग मशीन’’ में इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को धोकर स्वच्छ कर शामिल किया जा रहा है। इस वाशिंग मशीन का ‘‘डेमो’’ प्रदर्शन प्रेस वार्ता के माध्यम से टीवी चैनलों पर न केवल कांग्रेस दिखा रहीं है, बल्कि पूरा विपक्ष एक आवाज में इस मुद्दे को उठा भी रहा है। परन्तु अनजाने में बच के इस कथन का एक मतलब तो यही निकलता है कि विपक्ष स्वयं यह मानता है कि भाजपा वह संस्कृति वाली पार्टी है, जहां भ्रष्टाचार का नहीं बल्कि ईमानदारी का बोलबाला है, जो भ्रष्ट आदमी को सुधार कर ईमानदार बना देती है, भले ही उनका ‘‘तन मोर सा, लेकिन मन चोर सा हो’’।

मोदी की भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध कार्रवाई की "गारंटी"-

भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बार-बार यह कहते थकते नहीं हैं कि न खाऊंगा न खाने दूंगा। इस पर वे पूर्णतः अमल भी कर रहे हैं। ‘‘भ्रष्टाचारियों से मोदी ड़रने वाला नहीं हैं’’। एक-एक भ्रष्टाचारी को जेल की सलाखों के पीछे भिजवाने का कथन भी न केवल वे बार-बार कह रहे हैं, बल्कि भिजवा भी रहे हैं। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का वह कथन आज भी सबके सामने है कि हम दिल्ली से 100 पैसे भेजते हैं, पर उसमें से 15 पैसे ही जनता तक पहुंच पाते हैं, अर्थात 85 प्रतिशत का भ्रष्टाचार कांग्रेस शासन काल का प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वयं स्वीकारा था।

कानून अपना काम कर रहा हैः-

इसमें कोई शक नहीं है कि भाजपा की वाशिंग मशीन में इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को डाला अवश्य गया है, परंतु मशीन से निकलने के बाद अर्थात भाजपा में शामिल होने के बाद देश के किसी भी भाजपाई नेता ने न तो यह दावा किया है और न ही यह प्रमाण पत्र दिया है कि जिन भ्रष्ट कांग्रेसियों को पार्टी में शामिल किया है, वे सब ईमानदार हो गए हैं या उन पर  भाजपाईयों द्वारा भ्रष्टाचार के जो आरोप पहले लगाए थे, वे सब झूठे या गलत थे। बल्कि भाजपा का इन भ्रष्ट कांग्रेसियों को पार्टी में शामिल करने के संबंध में स्टैंड यही रहा है कि यदि वे भ्रष्टाचारी हैं, उनके खिलाफ आरोप है, मुकदमा चल रहा है, तो वह चलेगा। ‘‘कानून अपना काम करेगा’’। हमने कानून की प्रक्रिया में कोई अड़ंगा नहीं डाले हैं। जांच प्रक्रिया को आगे बढ़ना जांच एजेंसियों का काम है, सजा देना न्यायालय का काम है, हमारा नहीं। यदि किसी को भी यह लगता है कि भाजपा में शामिल हुए इन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, तो वह न्याय पाने के लिए न्यायालय में जाने के लिए स्वतंत्र है। 

एक तरफा "विपक्षी नेताओं" पर ईडी की कार्रवाईः-

कहते है कि ना ‘‘ताड़ने वाले भी कयामत की नजर रखते हैं’’। अतः खोजी पत्रकारिता के लिए जाने वाला अंग्रेजी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस की यह रिपोर्ट सबको जरूर पढ़नी चाहिए, जहां उसने ईडी के छापे के संबंध में एक अध्ययन कर यह विवेचना की है कि पिछले 10 वर्षों में जो 25 विपक्षी नेता ईडी का छापा पड़ने के बाद भाजपा में शामिल हो गए थे, उनमें से 20 मामलों में कारवाई शिथिल हो गई है, ठंडे बस्ते में चली गई हैं, अथवा नहीं हो रही है। तीन मामलों में खात्मा रिपोर्ट प्रस्तुत कर प्रकरण बंद कर दिये गये। ‘‘दाई से पेट नहीं छिपता’’, मात्र दो प्रकरणों में ही कार्रवाई आगे बड़ी है। ई.डी. (प्रवर्तन निदेशालय) ने पिछले 9 वर्षो में 21 दलों के 122 राजनैतिक नेताओं पर आपराधिक प्रकरण दर्ज किये गये है, जिनमें से 95 प्रतिशत से अधिक प्रकरण सिर्फ विपक्षी नेताओं पर है। इससे भाजपा का यह दावा तथ्यात्मक रूप से धरातल पर गलत सिद्ध होता है कि जांच एजेंसीज अपना काम ‘‘स्वतंत्र रूप से’’ कर रही हैं। तकनीकी रूप से यह सही हो सकता है, परंतु व्यवहार में यह आईने सामान स्पष्ट है कि ‘‘पिंजरे में बंद तोते की मानिंद’’ केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग किस तरह से हो रहा है। 

‘‘लेवल प्लेइिंग फील्ड’’ की नीति का पालन नहीं

भाजपाईयों पर भ्रष्टाचार की कार्रवाई न होने से विपक्षी नेताओं के विरूद्ध की जा रही भ्रष्टाचार विरोधी कार्रवाई इन भ्रष्ट विपक्षी नेताओं को स्वयमेव ईमानदार नहीं बना देती है। ईडी के छापों के दौरान आपत्तिजनक दस्तावेज, चल व अचल संपत्ति अधिकांश मामलों में मिली है, जिस कारण से अधिकांशत: आरोपियों को जमानत भी नहीं मिली है । कानून का यह सिद्धांत है कि हत्या के एक आरोपी के खिलाफ कार्रवाई न होने पर या न्यायालय द्वारा दोष मुक्त कर दिये जाने पर दूसरी हत्या के आरोपी को  उक्त उदाहरण के हवाले मात्र से स्वयमेव मुक्ति नहीं मिल जाती है।   बल्कि उसे कानूनी प्रक्रिया के तहत स्वयं को निर्दोष सिद्ध करना ही होता है। हां एक बात जरूर है कि इस चुनावी समर में चुनाव आयोग के समान अवसर (लेवल प्लेइंग फील्ड) के सिद्धांत व नीति का घोर उल्लंघन होता हुआ स्पष्ट रूप से दिखता है। जब सिर्फ विपक्ष के खिलाफ ही चुनाव के दौरान छापे मारे जाते है, गिरफ्तारियों की जाती है, एक भी भाजपा नेता पर नहीं!

भ्रष्टाचार पर कांग्रेस की ‘‘प्रभावशाली’’ कार्रवाई नहीं।

कांग्रेस को तो भाजपा नेतृत्व को इस बात के लिए अवश्य धन्यवाद देना ही चाहिए कि भाजपा ने उसके भ्रष्ट नेताओं को पार्टी में लेकर कांग्रेस को भ्रष्ट नेताओं से मुक्त कर महात्मा गांधी की उस ईमानदार कांग्रेेस पार्टी की और मोड़ दिया है, जो सत्ता वापसी के लिए लालाहित है। कांग्रेस भ्रष्ट कांग्रेसियों से मुक्ति का कार्य न तो स्वयं कर पा रही थी और न ही करने में सक्षम हैं। विपरीत इसके वह उन्हें भ्रष्ट मानने में भी परहेज करती थी, जब तक वे कांग्रेस में थे। कांग्रेस ने कभी भी भ्रष्टाचार के आधार पर आज तक किसी नेता को पार्टी से निष्कासित नहीं किया है। हां आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जरूर भ्रष्टाचार के मामले में मंत्री को बर्खास्त किया। ‘‘दांत टूटा सांप ज्यादा फूं फूं करता है ना’’। कांग्रेस ने इन नेताओं को भ्रष्ट तभी माना, जब वे लोग भाजपा में गए।

भाजपा की कार्यशाला में ‘‘व्यक्तित्व’’ का निर्माण-

‘‘पार्टी विद द डिफरेंस’’ का नारा देने वाली भाजपा को यह गुरूर जरूर है कि व्यक्तित्व का निर्माण करने वाली ‘संघ’ की कार्यशाला में शामिल होने के बाद व्यक्ति कितना ही भ्रष्ट-बुरा क्यों न हो, वह एक अच्छा इंसान जरूर बन जाएगा। शायद भाजपा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बाहर की बुराइयों को अपनी संगत में लाकर उन्हें सच्चाई में बदलने का प्रयास कर रही है। शायद वह अपने को ‘पारस’’ मान बैठी है। लेकिन वह यहां एक बड़ी भारी भूल कर रही है कि पारस पत्थर का गया जमाना ‘सतयुग’ का था और आज का युग ‘‘कलयुग’’ का है, जहां पीतल ‘‘पारस’’ के स्पर्श से खुद सोना बनने के बजाय पारस पत्थर को ही पीतल बना देगा। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक ईमानदार आदमी को भी सत्ता की कुर्सी पर बैठालने पर सत्ता उसे बेईमान बना देती है। इसका केजरीवाल से अच्छा उदाहरण आपके सामने कोई और  हो ही नहीं सकता हैं, जिसका राजनीतिक जन्म ही ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’’ के बैनर तले जन लोकपाल कानून बनाने व भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुआ है। यद्यपि मूल रूप से वे एक सफल नौकरशाही (आई.आर.एस.) थे।

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

मुख्तार अंसारी-बाबा राम रहीम! दो धारा होते भी लगभग एक समान प्लेटफार्म!

 आपको उक्त शीर्षक पढ़कर शायद आश्चर्य लग रहा होगा। मुख्तार अंसारी का नाम बाबा रहीम के साथ कैसे? मुख्तार अंसारी की न्यायिक हिरासत में जेल में तथाकथित रूप से दिल की धड़कन बंद होने से ‘‘संदिग्ध अवस्था’’ में निधन हो गया। ‘‘खराब स्वास्थ्य’’ के चलते न्यायिक हिरासत में मौत हुई या धीमा जहर देकर हत्या की गई, यह तो जांच का विषय है, जिसकी न्यायिक जांच की घोषणा की जा चुकी है। इस मौत ने खूंखार अपराधी, बाहुबली, दुर्दांत माफिया, डॉन, गैंगस्टर मृत मुख्तार अंसारी और हत्या तथा बलात्कार के अपराध में सजायाफ्ता जेल में बंद डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत बाबा राम रहीम की जीवन गाथा को ईश्वर की दी हुई हमारी दोनों आंखों से दोनों व्यक्तियों के लिए एक-एक आंख का प्रयोग एक साथ कर समझना होगा। तभी देश की राजनीति की एक विचित्र स्थिति आपके सामने स्पष्ट रूप से सामने आ पाएगी कि देश में किस तरह की धारा-विचारधारा को बल मिल रहा है, व देश किस दिशा की गर्त में जा रहा है।

बात सबसे पहले बाबा राम रहीम की ही कर लें। ‘‘रहीम’’ के साथ ‘‘राम’’ नाम जुड़ा है। इससे स्पष्ट है कि भगवान राम ने ‘‘बाबा रहीम’’ के समस्त दुष्कर्मों की सजा अवश्य दे दी है। परंतु कहते हैं ना कि ‘‘राम कहो आराम मिलेगा’’, सो भगवान राम के सच्चे सेवकों ने बाबा रहीम को दी गई सजा को देश के अभी तक के सजायफ्ता अपराधियों के इतिहास में सजा की सबसे बड़ी पैरोल की अवधि में बदल दिया है। सिर्फ वर्ष 2013 में ही उसे 91 दिन की कुल पैरोल तीन बार में दी गई। ‘‘या तो पगली सासरे जावे ना, और जावे तो लौट आवे’’। राजनीति की यह एक धारा है तो, दूसरी तरफ खूंखार अपराधी मुख्तार अंसारी जिस पर भारतीय दंड संहिता और यूपी गैंगस्टर अधिनियम, गुंडा, आर्म्स तथा सीएलए एक्ट के अंतर्गत 65 से अधिक गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें से 21 मामलों में मुकदमे चल रहे हैं, तथा आठ मामलों में सजा भी हो चुकी है। 19 साल से जेल में बंद अफजल को उसकी इच्छा के अनुरूप जेल के बाहर आने की पैरोल नहीं, बल्कि राज्य के बाहर की जेल में रहने की इजाजत समस्त राजनीतिक और कानूनी गुहार के बाद भी नहीं मिलती है, ‘‘ये पुर पट्टन ये गली बहुरि न देखे आई’’। जबकि वह जनता का एक नहीं पांच बार लगातार चुना हुआ विधानसभा का सदस्य वर्ष 1996 से 2022 तक उत्तर प्रदेश की महू विधानसभा से रहा है। उसके परिवार के अन्य सदस्य भाई अफजाल अंसारी सांसद और पुत्र अब्बास अंसारी विधायक हैं। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि अब्बास अंसारी ओपी राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी से विधायक है, जो एनडीए में शामिल है।

बाबा रहीम पर बलात्कार और हत्या के दो मामलों में आजीवन सजा हो चुकी है, जबकि मुख्तार अंसारी पर हत्या व अन्य आठ मामलों में अभी तक सजा हो चुकी है। हां परंतु उसके चरित्र को लेकर कभी भी कोई प्रश्नवाचक चिन्ह नहीं लगा है। इतने अधिक गंभीर आपराधिक मुकदमे दर्ज होने के बावजूद यौन अपराध का भी एक छोटे सा आरोप भी कभी नहीं लगा। मुख्तार अंसारी का यह चारित्रिक पक्ष जितना उजला है, उतना ही धुंधला पक्ष बाबा रहीम का है, बल्कि वह ज्यादा खतरनाक है। वह इसलिए कि उसे समाज में उस संत की उपाधि, दर्जा व मान्यता प्राप्त थी, जिस संत से नैतिकता, चारित्रिक निर्माण के संदेशों व प्रेरणा की उम्मीद समाज करता है।

यदि दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि देखी जाए तो निश्चित रूप से मुख्तार अंसारी का वर्तमान उनके परिवार के अतीत से किसी भी रूप में मेल नहीं खाता है, बल्कि वह आश्चर्य में डालने वाला वर्तमान है। उसके पिता का पूर्वांचल में इतना सम्मान था कि नगर पालिका के चुनाव में उनके विरुद्ध कोई भी व्यक्ति चुनाव लड़ता नहीं था। आम जन ‘‘फाटक’’ नाम से मशहूर उनके घर पर अपनी समस्याओं के निदान के लिए उनके पास जाते थे। उनके दादा मुख्तार अहमद अंसारी एक डॉक्टर थे, जो आजादी से पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। नाना महावीर चक्र विजेता उस्मान मुख्तर अंसारी सेना के ब्रिगेडियर रहे जो वर्ष 1948 के भारत पाकिस्तान युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए। बंटवारे के बाद पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें जनरल बनाने का प्रस्ताव प्रस्ताव दिया था, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया था। चाचा हामिद अंसारी देश के उपराष्ट्रपति रहे। हालांकि वे अपने बयानों के कारण विवादित भी रहे। इस प्रकार उनका परिवार उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का एक बहुत ही प्रतिष्ठित, देशभक्त, स्वतंत्रता संग्रामी रसूख वाला होने के साथ गरीबों का मसीहा रहनुमा परिवार कहलाता था। मुख्तार अंसारी को आप वर्तमान की फिल्मी क्षेत्र का रॉबिनहुड कह सकते हैं, जो अपराधी होकर भी फिल्मी हीरो था। परंतु अमीरों के अत्याचार से लड़कर गरीबों के हक के लिए एक सहायक होता था। चूंकि ‘‘शेर भैंसे का शिकार करता है, गिलहरी का नहीं’’ इसलिए फिल्म में जिस प्रकार रोबिन हुड की फाइटिंग पर ताली बजती है और मृत्यु पर शोक, वैसे ही ताली के रूप में जनता का प्रसाद वोट के रूप में मुख्तार अंसारी को बाहुबली और खूंखार अपराधी होने के बावजूद मिलता रहा। लेकिन ‘‘राख से आग छुप नहीं सकती’’। दुर्भाग्यवश यह हमारे देश की राजनीति और जनता की सोच व विचार का वह अप्रिय कटु सत्य है, जिसे 22 कैरेट के स्वस्थ सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में कदापि स्वीकारा नहीं जा सकता है। इसके लिए योगदत्त लापरवाही कंट्रीब्यूटरी (नेगलिजेंस) के लिए जनता व राजनीतिक पार्टियां दोनों बराबर के जिम्मेदार है।

गुरमीत राम रहीम सिंह वर्ष 1987 में स्थापित हरियाणा के सिरसा स्थिति संस्था ‘‘डेरा सच्चा सौदा’’ का प्रमुख है। गुरमीत द्वारा कई सकारात्मक कार्य किये गये हैं, जिस कारण से उन्हें कई ग्रिनीज बुक अॉफ रिकार्ड भी मिले है, जो रक्तदान, वृक्षारोपण व सबसे अधिक लोगों का हाथ साफ करने से संबंधित है। गुरमीत को सजा मिलने के बावजूद हजारों लोग न केवल उसके समर्थन में खड़े हुए बल्कि मरने-मारने के लिए आमदा होकर हिंसात्मक होकर दंगा होने से 38 लोगों की जाने भी चली गई।

निश्चित रूप से मुख्तार अंसारी की मौत पर वे समस्त भुक्त-भोगी परिवार चाहे वह कृष्ण चंद्र राय अथवा अजय राय का हो या अन्य वे सब परिवार, जिन्होंने अपने परिजनो को इस बाहुबली के हाथों खोया है, उन सब को आत्म संतुष्टि महसूस करने के साथ-साथ खुशी मनाने का भी व्यक्तिगत अधिकार बिना किसी प्रश्नवाचक चिंह के है। क्योंकि जो व्यक्ति अपनो को असमय अप्राकृतिक रूप से हमेशा के लिए खोता है, उसका दर्द वहीं समझ सकता है। परंतु जिस तरह से ‘‘लाठी पकड़ी जा सकती है जीभ नहीं’’, उसी प्रकार सोशल मीडिया में अफजाल अंसारी की मौत पर जिस तरह की टिप्पणियां की जा रही है, क्या वे एक सभ्य समाज की प्रतिक्रिया कही जा सकती हैं? खासकर भारतीय, विशेष कर हमारी हिंदू संस्कृति को देखते हुए जो एक बड़ा उदार दिल लिए हुए वह संस्कृति है, जहां पर व्यक्ति की मृत्यु पर हम सिर्फ उसकी अच्छाइयों को ही याद करते हैं, बुराइयों को भुला देते हैं। इस कारण से कि इस सृष्टि में दुनिया में कोई भी व्यक्ति, अपराधी या संत ऐसा नहीं है, जिसमें कुछ न कुछ अच्छाइयां न हो और कुछ न कुछ बुराईयां न हो। ‘‘विधि प्रपंच गुन अवगुन साना’’।


मंगलवार, 26 मार्च 2024

अपराध रहित व भ्रष्टाचार विहीन विधायिका का आह्वान करने वाले अरविंद केजरीवाल खुद ही भ्रष्टाचार के आरोप में अंततः गिरफ्त में आ गए।

 ‘‘ईमानदार राजनीति’’ के ‘‘परसेप्शन’’ पर ‘‘भ्रष्टाचार का तड़का’’।


याद कीजिए! अप्रैल 2011 में दिल्ली के जंतर मंतर पर ‘‘जन लोकपाल विधेयक’’ के लिए महाराष्ट्र के रालेगांव सिद्धि निवासी, समाजसेवी गांधीवादी बाबूराव हजारे जो अन्ना हजारे के नाम से जाने जाते हैं, का ‘‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन ग्रुप’’ के बैनर तले भ्रष्टाचार के विरुद्ध, गैर राजनैतिक, अहिंसा वादी आंदोलन लगभग चार महीने सफलतापूर्वक चला। इस आंदोलन को एक तरफ परदे के पीछे संघ प्रचारक एवं भारतीय जनता पार्टी के पूर्व महासचिव रहे चिंतक गोविंदाचार्य चला रहे थे, तो दूसरी ओर पर्दे पर ‘‘मैग्सेसे पुरस्कार’’ विजेता, भारतीय राजस्व सेवा से इस्तीफा देकर आए नौकरशाह संयुक्त आयकर आयुक्त रहे अरविंद केजरीवाल चला रहे थे। आंदोलन के दौरान दिन प्रतिदिन अरविंद केजरीवाल मंच से दहाड़ मार कर बोलते थकते नहीं थे कि यह जो संसद है, वह दागी है, क्योंकि उसमें 150 से ज्यादा सांसद दागी हैं, जिन पर भ्रष्टाचार और अपराधों के गंभीर आरोप है। ‘‘असली संसद’’ तो सामने खड़े लोग (जनता) हैं। अरविंद केजरीवाल की यह मांग रही थी कि जिन भी सांसदों पर अपराधिक अपराध और भ्रष्टाचार के प्रकरण चल रहे हैं, वे सब पहले संसद से इस्तीफा देकर न्यायालय में मुकदमा लड़ कर बाईज्जत बरी होकर आयें। फिर जनता के बीच जाकर चुनाव लड़कर चुनकर संसद में जाएं। यही सही स्वच्छ संसदीय लोकतंत्र होगा।

याद कीजिए! जब अन्ना आंदोलन के प्रमुख कर्ता-धर्ता अरविंद केजरीवाल ने संसदीय लोकतंत्र को अपराध व भ्रष्टाचार से मुक्त करने के उक्त मुद्दे को लेकर भ्रष्टाचार मुक्त और अपराधी/आरोपी विहीन संसद और विधानसभा की कल्पना को लेकर एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने की बात कही, तब केजरीवाल के आंदोलनकारी गुरु भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के मुख्य चेहरा अन्ना हजारे ने ऐसी ‘‘घर का देव और घर का पुजारी’’ वाली राजनीतिक पार्टी बनाने से साफ इनकार कर दिया था। शायद अन्ना ने जयप्रकाश नारायण के भ्रष्टाचार विरोधी संपूर्ण क्रांति के आंदोलन से सीख ली, जहां जेपी ने नई राजनीतिक पार्टी जनता पार्टी बनाई तो जरूर, परंतु स्वयं उन्होंने सत्ता में भागीदारी नहीं की। ‘‘घर का कुआ है तो डूब थोड़े ही मरेगें’’। 

अन्ना शायद इस बात को अच्छी तरह से समझ चुके थे कि जयप्रकाश नारायण की बनाई नई राजनीतिक पार्टी जनता पार्टी का कुछ ही समय में सत्ता के लिए लड़ाई के चलते क्या ह्रास हुआ? अतः अन्ना ने जेपी की सत्ता में भागीदारी की अनिच्छा के एक कदम और आगे बढ़ते हुए जेपी के समान नई राजनीतिक पार्टी बनाने से साफ इनकार कर दिया। शायद इसलिए कि यदि उक्त मुद्दों को लेकर नई राजनीतिक पार्टी बनाई जाएगी तो सत्ता की अंतर्निहित इच्छा लिए नई राजनीतिक पार्टी को फेवीकॉल समान मजबूत सत्ता तत्व से युक्त इस बुरी तरह से जकड़ कर वह उसे अपने वर्तमान स्वरूप के ढांचे (भ्रष्टाचारी) में ही समाहित कर नई पार्टी को भी अपने अनुरूप ढाल लेगा। यानि कि ‘‘फिर बेताल कंधे पर’’। तब फिर तंत्र को बदलने के लिए नई राजनीतिक पार्टी बनाने वाला नेतागण भी अंततः स्वयं उनके गिरफ्त में आ ही जाएंगे, जिसका परिणाम आज ‘‘खुल्ला खेल फरक्काबादी’’ का नारा लगाने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की भ्रष्टाचार के आरोप में हुई गिरफ्तारी के रूप में देखने को मिल रहा है। लबो लुआब यह कि ‘‘कडवी बेल की तूमड़ी उससे भी कड़वी होय’’।

पुनः याद कीजिए! इस देश में जब-जब भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन हुए वे सफल होकर तत्कालीन सत्ता को बदलने में तो सफल जरूर हुए, परंतु सत्ता के तंत्र को बदल नहीं पाए, सिर्फ ‘‘मुखौटा’’ ही बदला गया। विपरीत इसके भ्रष्टाचार का मजबूत तंत्र जिसे हम ‘‘लोकतंत्र’’ का नाम देते हैं, स्वयं पारस पत्थर बनकर अधिकांश आंदोलनकारी नेताओं को अंततः भ्रष्टाचारी बना दिया जो भ्रष्टाचार समाप्त करने नये राष्ट्र के निर्माण में निकले थे। गुजरात के युवाओं का भ्रष्टाचार के विरुद्ध नव-निर्माण आंदोलन से प्रारंभ हुआ आंदोलन बिहार में पहुंचकर जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में परिवर्तित हो गया। इस कारण ही आपातकाल लगा और अंततः आपातकाल हटने के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। परंतु सत्ता के भ्रष्ट तंत्र को जयप्रकाश नारायण के सिपहसालार परिवर्तित नहीं कर पाए और कहते हैं ना कि ‘‘कचरे से कचरा बढ़े’’ तो, संपूर्ण क्रांति के आंदोलन की पैदाइश लालू यादव से लेकर देवीलाल जैसे अनेक खांटी नेता भ्रष्टाचार में गले की कंठ तक डूब गए। इसी प्रकार विश्वनाथ प्रताप सिंह का भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन सफल होकर वे स्वयं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जरूर आरूढ़ होकर सत्तारूढ़ हो गये। परंतु वह भी सिर्फ सरकार के चेहरा बदलने तक ही सीमित रहा, तंत्र बदलने में वे भी पूर्णतः असफल रहे।

अरविंद केजरीवाल के समर्थक आम पार्टी के कार्यकर्ता गण जरूर यह कह सकते हैं कि ‘‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’’ का नारा देने वाले निश्चित रूप से स्वयं तो नहीं खा रहे हैं, परन्तु आगे का कथन न खाने दूंगा को धरातल पर जरूर अनर्थ अथवा अर्थहीन कर दिया है। क्योंकि समस्त दागी, भ्रष्टाचारी नेताओं जिन पर उक्त नारा देने वालो ने स्वयं भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप समय-समय पर लगाए बावजूद फिर उन्हें गले भी लगा लिया। वे सब ‘‘झंडू बाम हो गये’’। ऐसा शायद इसलिए भी जरूरी हो गया ंकि एक दूसरा नारा भी दिया गया था, ‘‘सबका साथ, सबका विकास सबका प्रयास’’। सबके साथ में भ्रष्टाचारी भी तो शामिल है, जिनकी भागीदारी इस कारण से शायद आवश्यक हो गई। ‘‘जब गंगोत्री ही मैली है, तो गंगा मैली क्यों न होगी’’। सरकार पर यह आरोप भी लगता है कि ईडी की यह कार्रवाई का समय निश्चित रूप से ‘‘राजनीति’’ से प्रेरित होकर पक्षपात पूर्ण है। क्योंकि ईडी, इनकम टैक्स, सीबीआई की कार्रवाई सिर्फ विपक्षी नेताओं पर (लगभग 95 प्रतिशत से ऊपर) हो रही है। वह भी विशुद्ध कानूनन् न होकर राजनीतिक गठजोड़ फायदा नुकसान के हिसाब से सत्तारूढ़ पार्टी के इशारां पर हो रही है, यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित दिखता भी है। अब तो इस ‘टूल’ में ‘‘भारतीय स्टैट बैंक’’ को भी शामिल कर लिया गया है जो इलेक्ट्राल बॉड के मामले में उच्चतम न्यायालय में सीबीआई के रूख से बिलकुल सिद्ध होता है।       

केजरीवाल का सार्वजनिक/राजनीतिक जीवन प्रांरभ से ही दोहरा चरित्र व झूठ का आवरण ओढ़े हुए गुजरते समय के साथ विवादित भी रहा है। ‘‘राजनीति में नहीं आऊंगा’’। ‘‘कांग्रेस से कोई समझौता नहीं करूगा’’ आदि-आदि। ‘‘चंचल नार की चाल छिपे नहीं’’। तथापि शासकीय सेवाकार्य उत्कृष्ट, उज्जवल रहा है। मात्र ‘आरोपी’ हो जाने के आधार पर दागी सांसदों से इस्तीफा मांग कर सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाले केजरीवाल की स्वयं की पार्टी के अधिकांश विधायक व मंत्रियों पर कई आपराधिक मुकदमे दर्ज हो चुके हैं (62 में से 35 विधायकों पर)। बल्कि कुछ तो जेल के अंदर काफी समय से हैं। बावजूद इसके किसी भी दागी/आरोपी विधायक द्वारा न तो स्वयं इस्तीफा दिया गया और न ही मंत्रियों के बर्खास्त करने का काम केजरीवाल ने किया। काफी समय तक जेल में रहने के बाद मंत्रियों से इस्तीफा लिया गया। केजरीवाल स्वयं देश के ऐसे पहले मुख्यमंत्री बन गये, जिन्हें मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए गिरफ्तार किया गया है। इसके पूर्व तीन अन्य मुख्यमंत्रियों लालू प्रसाद यादव, जयललिता एवं हेमंत सोरेन जिन्होंने गिरफ्तार होने के पूर्व इस्तीफा दे दिया था, के विपरीत केजरीवाल ने जेल से ही सरकार चलाने की घोषणा की है। 

केजरीवाल को अपनी गलती सुधारते हुए ‘‘नैतिकता का सम्मान’’ करते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर ‘‘एक नदी के भांति अपनी राह खुद बनाने वाले’’ अपनी गिरती छवि को सुधारने के अवसर को जाने नहीं देना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि केजरीवाल एक पढ़े लिखे राजनीति की नई ईबारत लिखने वाले एक ऐसे सफल राजनेता बन गये कि इतने कम समय में उन्होंने जो राजनैतिक उंचाईयां व सफलता प्राप्त की है ऐसी कोई मिसाल विगत कुछ दशकों में देखने को नहीं मिली है। दबंग व्यक्तित्व के धनी दृढ़ता से अपने से उंचे हिमालय पर बैठे नेताओं को तर्क से जवाब देकर सामना करने की हिम्मत आज कल कम ही नेताओं में दिखती है। इसीलिए आज उन्हें इस बात पर जरूर अंतर्मन से विचार करना चाहिए कि ‘‘इंडिया अग्रेस्ट करप्शन’’ मंच के उनके पुराने साथी जिन्होंने अन्ना आंदोलन में केजरीवाल के साथ भाग लिया क्योंकि वे बाबा रामदेव, किरण बेदी, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण, राजेन्द्र सिंह, पीवी राजगोपाल, आशुतोष, योगेन्द्र यादव, स्वामी अग्निवेश आदि एक-एक करके छोड़कर चले गये। इंडिया अगेंस्ट करप्शन का झंडा उठाकर उक्त आंदोलन से उपजी ‘‘आम आदमी पार्टी’’ के शीर्ष चार नेताओं की भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ्तार होकर जेल में अभी तक रहने से व विधायकि से इस्तीफा न देने के कारण इसे गिरती राजनीति की नैतिकता का निम्नतम स्तर ही माना जायेगा।

इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि यदि राजनीति से भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करना है, तो आपको राजनीति से दूर रहकर ही तंत्र को बदलना होगा और यह तभी बदल पाएगा जब तंत्र का जनतंत्र का एक-एक जन इस दिशा में देश को नई दिशा देने के लिए बिना किसी राजनीतिक प्लेटफार्म के कुछ करने के लिए तत्पर होकर कार्य करने के लिए खड़ा हो जाएगा। इस बात को समझने के लिए अन्ना आंदोलन के समय केजरीवाल के भाषण की इन लाइनों को पढ़ लीजिए! ‘‘इस कुर्सी के अंदर कुछ न कुछ समस्या है, जो भी इस कुर्सी पर बैठता है, वह गडबड़ हो जाता है। तो कहीं न ऐसा तो नहीं कि जब इस आंदोलन से कोई विकल्प निकल गए और वे लोग जब कुर्सी पर जाकर बैठेंगे, तब वो भी कहीं भ्रष्ट न हो जाए ये, भारी चिंता है हम लोगों के मन में’’।

केजरीवाल की तत्समय की मन की चिंता आज स्वयं उन पर ही फलीभूत होते हुए दिख रही है।

रविवार, 10 मार्च 2024

लोकतंत्र की हत्या रोकने के लिए संविधान का अतिक्रमण?

लोकतंत्र पर लगे ‘‘अभूतपूर्व काले दाग’’ को मिटाने के लिए ऐतिहासिक न्यायिक निर्णय!

‘‘निर्णय की तथ्यात्मक गलतियां’’ 

उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना के अनुरूप विश्व प्रसिद्ध फ्रांसीसी वास्तुकार ‘‘ली कार्बजियर’’ द्वारा डिजाइन की गई 20वीं सदी का देश का नया बना शहर चंडीगढ़ के मेयर चुनाव को लेकर उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर की गई थी। 5 फरवरी को पहली बार हुई सुनवाई के दौरान माननीय मुख्य न्यायाधीश ने कहा ‘‘क्या इस तरह से चुनाव कराए जाते हैं’’? यह लोकतंत्र का मजाक है, हत्या है। क्या चुनाव अधिकारी का ऐसा बर्ताव हो सकता है’’। ’हम हैरान हैं! इस ‘‘शख्स पर केस चलना चाहिए’’। यह सब आश्चर्य मिश्रित ‘‘कठोर कथन’’ कहकर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को इस बात के लिए भी हड़काया कि ऐसे मामले में अंतरिम आदेश पारित क्यों नहीं किये गये? 

सबसे ‘‘आश्चर्यजनक बात’’ यह भी रही कि बिना किसी शक-शुबहा के लोकतंत्र की हत्या होते देखने के तथ्य से सहमति दर्शाने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने स्वयं भी ऐसा कोई ‘‘अपेक्षित आदेश’’ न्याय के लिये पारित नहीं किया। इस प्रकार कहीं न कहीं तथ्यों पर स्वयं के पर्यवेक्षण (ऑब्जरवेशन) एवं निष्कर्षानुसार कार्रवाई न करके प्रथम दृष्ट्वा उच्चतम न्यायालय की गलती प्रतीत होती है। उच्चतम न्यायालय द्वारा संपूर्ण न्याय देने की प्रक्रिया में संविधान के अनुच्छेद 142 में निहित व्यापक विवेकाधिकार का उपयोग करते हुए और विधान को परे रखकर कौन-कौन सी गलतियां उच्चतम न्यायालय ने की हैं, जैसा कि एक उदाहरण ऊपर दिया गया है। इसकी विवेचना की जानी आवश्यक है। ख़ास तौर से इस सिद्धांत को देखते हुए कि कोई भी संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो ग़लती न करता हो। ‘‘चांद को भी ग्रहण लगता है’’। 

पहले यह समझना आवश्यक है कि संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग सामान्यतः विशिष्ट कानून के अभाव में अथवा कानून में अपूर्णता या कमी होने के कारण उपचार के लिए न्याय हित में अत्यंत आवश्यक और अपरिहार्य होने पर ही किया जाता है। यहां पर उच्च न्यायालय द्वारा स्थगन आदेश न दिए जाने के कारण एक ‘‘एसएलपी’’ (विशेष अनुमति याचिका) उच्चतम न्यायालय में दायर की गई थी! प्रथम गलती उच्चतम न्यायालय की तब हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय को फटकारने के बाबजूद अंतरिम आदेश न देकर याचिकाकर्ता को त्वरित सहायता प्रदान न करते हुए 15 दिन बाद प्रदान की! इस कारण से 30 जनवरी को अवैध रूप से चुना गया महापौर 18 फरवरी तक कार्यरत रहा, जब तक उसने पद से (वह भी परिस्थितियों वश) इस्तीफा नहीं दिया, क्योंकि चुनाव अधिकारी ने परिणाम घोषित होते ही उसे तुरंत चार्ज दिलवा दिया था। क्योंकि ‘‘तकल्लुफ में है तक़लीफ़ सरासर’’। 

उच्च न्यायालय के आदेशानुसार की गई चुनावी प्रक्रिया की पूरी वीडियो रिकॉर्डिंग का अवलोकन करने पर पता चला कि पीठासीन चुनाव अधिकारी अनिल मसीह वैधानिक एवं लोकतांत्रिक रूप से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के अपने कर्तव्य के निर्वहन में न केवल असफल दिख रहे थे, बल्कि कहीं न कहीं ‘‘कूट रचित’’ (फोर्जरी) करते हुए भी दिखाई दे रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने उक्त कथित अपराध कदाचार एवं न्यायालय के समक्ष गलत बयानी के लिए न्याय चुनाव अधिकारी के विरुद्ध रजिस्टर को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 340 के अंतर्गत तीन हफ्ते का कारण बताओ सूचना पत्र देने के आदेश भी दिए। याचिकाकर्ता द्वारा स्वयं चुनाव अधिकारी के विरुद्ध कोई आपराधिक प्रकरण दर्ज न करवाना और फिर दायर एसएलपी (विशेष अनुमति याचिका) में इस तरह की सीधी कोई मांग न करने के बावजूद उच्चतम न्यायालय का उक्त निर्देश कितना ‘‘न्यायोचित’’ है?, यह दूसरा प्रश्न है। तीसरा देश की सर्वोच्च न्यायालय की इस तरह की टिप्पणियों के बाद अधीनस्थ न्यायालय में चुनाव अधिकारी के खिलाफ आगे की जाने वाली कार्यवाही क्या प्रभावित नहीं होगी? 

सबसे बड़ा प्रश्न यहां यह उत्पन्न होता है कि चंडीगढ़ मामले में उच्चतम न्यायालय ने संवैधानिक व कानूनी नजरिये से चंडीगढ़ के निर्वाचित महापौर का चुनाव अवैघ घोषित कर हारे हुए उम्मीदवार को निर्वाचित घोषित कर, जिसकी स्पष्ट मांग याचिका में नहीं थी, क्या कानून व नियम का पूर्ण रूप से पालन किया है? देश के न्यायिक इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ है। इस प्रश्न का संवैधानिक व कानून की दृष्टि से सूक्ष्म विवेचन किया जाना आवश्यक है। बावजूद इस तथ्य के उच्चतम न्यायालय ने अंततः पीड़ित पक्ष को राहत प्रदान की और लोकतंत्र की जो हत्या निर्वाचन अधिकारी ने तथ्यों के विपरीत परिणाम घोषित कर की थी, उसका इलाज कर लोकतंत्र की सुचिता को बनाये रखकर सुरक्षित किया।

उच्चतम न्यायालय का उक्त आदेश निम्न कारणों से संविधान@कानून का पालन करते हुए दिखाई नहीं देता है। तथापि अंतिम निर्णय निश्चित रूप से तथ्यों के आधार पर सही है। अन्यथा ‘‘चंदन धोई मछली पर छूटी ना गंध’’ की उक्ति चरितार्थ होना लाजमी है। आप जानते है, हमारे देश में कोई भी ‘‘चुनाव’’ गलत प्रक्रिया अपनाये जाने पर अथवा चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का उपयोग किये जाने पर उक्त निर्वाचन को चुनौती देने के लिए चुनाव याचिका का प्रावधान है। क्योंकि सामान्यतया एक बार चुनावी प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर गलत रूप से नामांकन को स्वीकार या अस्वीकार कर दिया जाये, तब भी चुनावी प्रक्रिया रोकी नहीं जाती है, बल्कि ‘‘चुनाव परिणाम’’ को ही चुनाव याचिका के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है। ऐसा कानूनी प्रावधान है। 

चंडीगढ़ चुनावी प्रक्रिया को समय समय पर विभिन्न कारणों से उच्च न्यायालय मे चुनौती दी गई थी, जिनमें एक कारण समय पर चुनाव न कराना, चुनाव तिथी एक बार तय हो जाने बाद लम्बी अवधि के लिए स्थगित कर देना, एक पार्षद को अवैध रूप से हिरासत में रखने से मुक्ति के लिए, राजनीतिक पार्टी से संबंधित व्यक्ति की चुनाव अधिकारी के रूप में नियुक्ति आदि! उच्च न्यायलय द्वारा दिए गये अंतरिम स्थगन आदेश को अस्वीकार करने के विरूद्ध दायर चुनाव याचिका में उच्चतम न्यायलय ने केन्द्र व चंडीगढ़ प्रशासन एवं अन्य पक्षों को नोटिस देने के साथ निर्वाचन के समस्त रिकार्ड अपने समक्ष प्रस्तुत किये जाने के निर्देश देते हुए दो सप्ताह बाद की तिथि निश्चित की। उच्चतम न्यायालय ने भी तुरंत अंतरिम स्थगन आदेश पारित नहीं किया। मतलब उच्च न्यायालय द्वारा चुनाव याचिका का निपटारा नहीं हुआ था, मात्र अंतरिम स्थगन आवेदन का निराकण हुआ था, जिसके विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की गई थी। यह तो वही बात हुई है कि ‘‘जल की मछलियां जल में ही प्यासी’’। यहां एक उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि उच्च न्यायालय में दायर याचिका में याचिकाकर्ता ने पुनः चुनाव किये जाने की प्रार्थना की थी, खुद को विजयी घोषित करने की नहीं। 

मतलब उच्चतम न्यायालय के सामने स्थगन आदेश आवेदन पर आदेश पारित करने का मामला था। चूंकि यहां पर उच्चतम न्यायालय की नजर में चुनावी धांधली आईने के समान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रही थी और हारे हुए आदमी को जीता हुआ दिखा दिया, यह स्पष्ट है। तब उच्चतम न्यायालय ने बजाय स्थगन आदेश देने के, तथा उच्च न्यायालय को याचिका के गुण-दोष के आधार पर आदेश पारित करने के निर्देश देने की बजाए, स्वयंस्फूर्त रूप से अपील को अंतिम रूप से ही निर्णित कर दिया, जो याचिकाकर्ता की मांग ही नहीं थी। इस प्रकार स्पष्ट रूप से उच्चतम न्यायालय द्वारा एक कानूनी@तथ्यात्मक गलती की और एक गलत परिपाटी डाली गई! 

यद्यपि यह जरूर कहा जा सकता है कि न्याय देने के लिए गलत परिपाटी डाली गई! उच्चतम न्यायालय की दूसरी महत्वपूर्ण गलती दिख रही है, पुलिस जांच अधिकारी के समान न्यायालय भी तथाकथित आरोपी जो जब तक प्रतिवादी था, से प्रश्नोंत्तर करने लगी और जब उसके बाद एक प्रतिवादी के रूप मे प्रस्तुत किये गये व्यक्ति को उच्चतम न्यायालय प्रथम दृष्टिया आरोपी ठहरा देता है, तब सुनवाई के समय अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र निर्णय दे पायेगा, उसके लिये ‘‘तत्ता कौर न निगलने का न उगलने का’’ वाली स्थिति तो उत्पन्न नहीं हो जायेगी? बड़ा यक्ष प्रश्न यह है? यह उच्चतम न्यायालय का ही बनाया हुआ नियम व सिद्धांत है कि ‘‘न्याय न केवल मिलना चाहिए, बल्कि मिलते हुए दिखना भी चाहिए’’। कहते हैं कि ‘‘जंह पांच पंच तंह परमेश्वर’’, यहां पर उच्चतम स्तर पर किये गये आदेशानुसार बनाये जाने वाले आरोपी के साथ न्याय हो पायेगा? अधीनस्थ न्यायालय स्वतंत्र रूप क्या निर्णय ले पायेगी? सबसे महत्वपूर्ण गलती यह रही कि बहस के दौरान उच्चतम न्यायालय का यह कथन कि हम हॉर्स ट्रेंडिंग नहीं होने देंगे। यह कहीं से कहीं तक चुनाव याचिका का भाग नहीं था, लेकिन चुनाव याचिका के दायर होने के बाद और सुनवाई के एक दिन पूर्व महापौर के इस्तीफा देने व 3 पार्षदों के द्वारा दल-बदल करने के कारण उक्त स्थिति का भी संज्ञान लिया गया लगता है, जो याचिका की विषय वस्तु नहीं थी। तब मसीह के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के साथ मसीह के ‘‘मसीहा’’ का पता लगाने की जांच के आदेश भी दिए जा सकते थे? 

ऐसी स्थिति में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उसके पास उपलब्ध असीमित अधिकार को अनुच्छेद 142 के अधीन सही ठहराने के बजाय चुनाव याचिका के लिए बने कानून में आमूलचूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिए पैने दांतों की ज़रूरत होती है’’। ताकि इस तरह की स्थिति पैदा होने पर ऐसे प्रत्येक मामले में त्वरित व तुरंत निर्णय लेने में निम्न न्यायालय सक्षम हो सकंे। यह निर्णय कानून की सीमाओं से ऊपर उठकर न्याय की कुर्सी पर बैठे न्यायाधीपति के साहस व उनके विवेक पर ज्यादा निर्भर करता है। इसलिए यदि ‘‘न्याय तंत्र’’ की मूल कमियों को भविष्य में दूर नहीं किया गया तो, उस पर बैठा हुआ न्यायाधीश आज के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ जैसा साहसी नहीं हुआ तब ऐसे निर्णय नहीं आ पायेगें, और फिर न्याय न तो ‘न्यायिक’ और न ‘अन्यायिक’ तरीेके से आ पायेगा?

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